पाणिनी (520-460 ई. पू. लगभग)
प्रख्यात वैयाकरण पाणिनी का जन्म 520 ई.पू. शालातुला (Shalatula, near Attok) सिंधु नदी जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में माना जाता है। चूंकि यह समय विद्वानों के पूर्वानुमानों पर आधारित है, फिर भी विद्वानों ने चौथी, पांचवी, छठी एवं सातवीं शताब्दी का अनुमान लगाते हुए पाणिनी के जीवन काल के अविस्मरणीय कार्य को बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य के प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। बावजूद इसके उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पाणिनी संपूर्ण ज्ञान के विकास में नवप्रवर्तक के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
किंवदन्तियों के आधार पर पाणिनी के जीवन काल की एक घटना प्रचलित है कि वर्ष नामक एक ऋषि के दो शिष्य कात्यायन और पाणिनी थे। कात्यायन कुशाग्र और पाणिनी मूढ़ वृत्ति के व्यक्ति थे। अपनी इस प्रवृत्ति से चिंतित होकर वे गुरुकुल छोड़ कर हिमालय पर्वत पर महेश्वर शिव की तपस्या के लिए चले गए। लंबे समय के बाद उनके तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दर्शन दिया और प्रबुध्द होने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद वे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखे और अपने अथक प्रयास से संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन-विश्लेषण किया।
उनकी इस साधना का प्रतिफल भारतीय संस्कृति को 'अष्टाध्यायी' के रूप में प्राप्त हआ है। इसके बाद पाणिनी को 'व्याकरण के पुरोधा' के रूप में भाषाविज्ञान जगत् में उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया। इन्होंने स्वनविज्ञान, स्वनिमविज्ञान और रूपविज्ञान का वैज्ञानिक सिध्दांत प्रतिपादित किया। संस्कृत भारतीय संस्कृति की साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकृत है और पाणिनी ने इस भाषा और साहित्य को सभी भाषा की जननी का स्थान प्रदान करने में जनक का काम किया। संस्कृत का संरचनात्मक अर्थ है- पूर्ण और श्रेष्ठ। इस आधार पर संस्कृत को स्वर्गीय (divine) भाषा या ईश्वरीय भाषा की संज्ञा प्रदान की गई है। पाणिनी ने इसी भाषा में अष्टाध्यायी (अष्टक) की रचना की जो आठ अध्यायों में वर्गीकृत है। इन आठ अध्यायों को पुन: चार उपभागों में विभाजित किया गया है। इस व्याकरण की व्याख्या हेतु इन्होंने 4000 उत्पादित नियमों और परिभाषाओं को रूपायित किया है। इस व्याकरण का प्रारंभ लगभग 1700 आधारित तत्त्व जैसे संज्ञा, क्रिया, स्वर और व्यंजन द्वारा किया गया है। वाक्यीय संरचना, संयुक्त संज्ञा आदि को संचालित नियमों के क्रम में आधुनिक नियमों के साम्यता के आधार पर रखा गया है। यह व्याकरण उच्चतम रूप में व्यवस्थित है जिससे संस्कृत भाषा में पाए जाने वाले कुछ सांचों का ज्ञान होता है। यह भाषा में पाई जाने वाली समानताओं के आधार पर भाषिक अभिलक्षणों को प्रस्तुत करता है और विषय तथ्यों के रूप में रूपविश्लेषणात्मक नियमों का क्रमबध्द समुच्चय निरूपित करता है। पाणिनी द्वारा प्रतिपादित इस विश्लेषणात्मक अभिगम में स्वनिम और रूपिम की संकलपना निहित है, जिसे पाश्चात्य भाषाविद मिलेनिया ने पहचाना था। पाणिनी का व्याकरण विवरणात्मक है। यह इन तथ्यों की व्याख्या नहीं करता कि लोगों को क्या बोलना और लिखना चाहिए बल्कि यह व्याख्या करता है कि वास्तव में लोग क्या बोलते और लिखते हैं।
पाणिनी द्वारा प्रस्तुत भाषिक संरचनात्मक विधि एवं व्यवहार का निर्माण विविध प्राचीन पुराणों और वेदों को विश्लेषित करने की क्षमता रखता है, जैसे- शिवसूत्र। रूपविज्ञान के तार्किक सिध्दांतो के आधार पर वे इन सूत्रों को विश्लेषित करने में सक्षम थे।
अष्टाध्यायी को संस्कृत का आदिम व्याकरण माना जाता है, जो एक ओर यह निरूक्त, निघंटु जैसे प्राचीन शास्त्रों की व्याख्या करता है तो वहीं दूसरी ओर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान, प्रजनक भाषाविज्ञान के उत्स (स्रोत) का कारण भी बनता है। इस दृष्टि से यह व्याकरण भर्तृहरि जैसे प्राचीन भाषाविद् और सस्यूर जैसे आधुनिक भाषाविद् को प्रभावित भी करता है।
आधुनिक भाषाविदों में चॉम्स्की ने यह स्वीकार किया है कि प्रजनक व्याकरण के आधुनिक समझ को विकसित करने के लिए वे पाणिनी के ऋणि हैं। इनके आशावादी सिद्धांतों की प्राक्कल्पना जो विशेष और सामान्य बंधनों के बीच संबंधों को प्रस्तुत करती है वह पाणिनी द्वारा निर्देशित बंधनों से ही नियंत्रित होते हैं।
पाणिनी व्याकरण गैर-संस्कृत भाषाओं के लिए भी यृक्तियुक्त है। इसलिए पाणिनी को गणितीय भाषाविज्ञान और आधुनिक रूपात्मक व्याकरण का अग्रदूत कहा जाता है, जिसके सिध्दांत कंप्यूटर भाषा को विशेषीकृत करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। पाणिनी के नियम पूर्ण रूप से श्रेष्ठ कहे जाते हैं, क्योंकि ये न सिर्फ संस्कृत भाषा के रूप प्रक्रियात्मक विश्लेषण के लिए सहायक हैं अपितु यह कंप्यूटर वैज्ञानिकों को मशीन संचालन के लिए स्पष्ट नियमों की व्याख्या भी करते हैं। पाणिनी ने कुछ आधिनियमों, रूपांतरण नियम एवं पुनरावृति के जटिल नियमों का प्रयोग किया है, जिससे मशीन में गणितीय शक्ति की क्षमता विकसित की जा सकती है। 1959 में जॉन बैकस द्वारा स्वत्रंत रूप में Backus Normal Form (BNF) की खोज की गई। यह आधुनिक प्रोग्रामिंग भाषा को निरूपित करने वाला व्याकरण है । परंतु यह भी ध्यातव्य है कि आज के सैध्दांतिक कंप्यूटर विज्ञान की आधारभूत संकल्पना का स्रोत भारतीय प्रतिभा के गर्भ से 2500 वर्ष पूर्व ही हो चुका था जो पाणिनी व्याकरण के नियमों से अर्थपूर्ण समानता रखता है।
पाणिनी हिन्दू वैदिक संस्कृति के अभिन्न अंग थे । व्याकरण के लिए उनकी समष्टि एवं तकनिकी प्राकल्पना वैदिक काल की समाप्ति और शास्त्रीय संस्कृत के उद्भव तक माना जाता है। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि पाणिनी वैदिक काल के अंत तक जीवित रहे। प्रमाणों के आधार पर पाणिनी द्वारा दस विद्वानों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने संस्कृत व्याकरण के अध्ययन में पाणिनी का योगदान दिया। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि इन दस विद्वानों के बाद पाणिनी जीवित रहे लेकिन इसमें कोई निश्चित तिथि का प्रमाण नहीं मिलता वे दस विद्वान कब तक जीवित थे। ऐसे में यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी की पाणिनी और उनके द्वारा कृत व्याकरण अष्टाध्यायी संपूर्ण मानव संस्कृति विशेषकर भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। भाषिक संदर्भ में प्राचीन काल से अधुनिक काल तक यह भाषावैज्ञानिक और कंप्यूटर वैज्ञानिकों के अध्ययन-विश्लेषण का विषय रहा है, जिसके परिणाम सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक पृष्टभूमि में विकसित प्रौद्योगिकी उपकरणों में देखे जा सकते हैं, जिसकी आधारशिला पाणिनी के अष्टाधायी के रूप में मानव बुद्धि की एकमात्र समाधिशिला बनकर स्थापित है।
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